एक बातचीत में जब मैंने युवा फिल्मकार पुष्पेंद्र सिंह से पूछा कि चर्चित राजस्थानी साहित्यकार विजयदान देथा की किस कहानी पर वे फिल्म बनाना चाह रहे थे, उन्होंने ‘दुविधा’ का नाम लिया. फिर उन्होंने जोड़ा कि ‘मणि (कौल) इस पर फिल्म बना चुके थे इसलिए मैंने उनकी ‘केंचुली’ कहानी चुनी’. उल्लेखनीय है कि ‘केंचुली’ पर सिंह ने ‘लैला और सात गीत’ फिल्म बनाई, जिसकी काफी चर्चा है.
राजस्थानी लोककथा पर आधारित ‘दुविधा’ विजयदान देथा की बहुचर्चित कहानी रही है. इस कहानी को आधार बना कर अमोल पालेकर ने भी पहेली (2005) नाम से एक फिल्म निर्देशित की थी, जिसमें शाहरुख खान और रानी मुखर्जी की प्रमुख भूमिका थी. पिछले दिनों एनएसडी रंगमंडल ने ‘दुविधा’ कहानी पर ‘माई री मैं का से कहूं’ का मंचन किया था.
बहरहाल, समांतर सिनेमा के पुरोधा मणि कौल की फिल्म ‘दुविधा (1973)’ के पचास साल पूरे हो रहे हैं. ‘दुविधा’ के केंद्र में एक नवविवाहिता स्त्री है, जिसका पति शादी के दूसरे दिन ही घर छोड़ कर ‘दिसावर’ (व्यापार के लिए) निकल जाता है. इस बीच एक भूत पति का रूप धर घर वापस आता है और उस स्त्री के संग-साथ रहने लगता है. भूत अपने छल को लेकर स्त्री से झूठ नहीं बोलता. पति (रवि मेनन) को लच्छी (राईसा पद्मसी) के अपरूप सौंदर्य की चाह नहीं है, वह हिसाब-किताब में उलझा है, पर भूत उस पर मोहित है.
मणि कौल ने साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनाई, हालांकि सबका आस्वाद अलग है. ‘दुविधा’ से पहले वे मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ और नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ पर फिल्म बना चुके थे.
उनकी फिल्में सादगी, सिनेमाई दृष्टि, बिंबो-रंगो के संयोजन के लिए जानी जाती है. ‘उसकी रोटी’, ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘दुविधा’ में स्त्रियों के द्वारा विभिन्न देश-काल में इंतजार का चित्रण मिलता है. उल्लेखनीय है कि समांतर सिनेमा के फिल्मकारों ने नई कहानी को आधार बनाया जहाँ इंतजार प्रमुखता से चित्रित है.
मणि कौल की फिल्मों में विभिन्न कला रूपों-पेंटिंग, स्थापत्य और संगीत की आवाजाही सहजता से होती है. उनकी फिल्मों का स्वरूप लैंडस्केप से काफी प्रभावित रहा है.
इस फिल्म की सिनेमाटोग्राफी की चर्चा अलग से होनी चाहिए. आम तौर पर मणि कौल और कुमार शहानी की फिल्मों में पुणे संस्थान से प्रशिक्षित के के महाजन का छायांकन होता था, लेकिन इस फिल्म में बहुमुखी प्रतिभा के धनी नवरोज कांट्रैक्टर ने कैमरा संभाला.
फिल्म के एक दृश्य का उल्लेख यहाँ जरूरी है जब लच्छी का पति दिसावर जाने को होता है: किवाड़ की ओट में टिमटिमाती लौ, किवाड़ खोल कर काजल भरी आंखों से लच्छी जिस तरह से घर-आंगन को देखती है, बाह्य प्रकाश में उसकी अंतर्मन की पीड़ा (विरह) साफ झलक उठती है.
मणि कौल की फिल्मों में ध्वनि के इस्तेमाल का काफी महत्व रहा है, हालांकि इस फिल्म में संवाद नहीं है, वॉयस ओवर का इस्तेमाल किया गया है. यहाँ मौन मुखर है. फिर भी संवाद से इतर एक सजग दर्शक फिल्म में विभिन्न रूप में आए ध्वनि की बारीकियों को सुन सकता है. मणि कौल की फिल्में संसाधनों से भी प्रभावित रही.
प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे ने ‘फोर एंड ए क्वार्टर’ (1974) शीर्षक लेख में इस फिल्म की आलोचना की थी, लेकिन आने वाले दशकों में अवांगार्द फिल्मकारों के वे प्रिय रहे. अनूप सिंह, पुष्पेंद्र सिंह, गुरविंदर सिंह, अमित दत्ता जैसे अवांगार्द फिल्मकारों के यहाँ मणि कौल की छाप स्पष्ट है.
अरविंद दासपत्रकार, लेखक
लेखक-पत्रकार. ‘मीडिया का मानचित्र’, ‘बेखुदी में खोया शहर: एक पत्रकार के नोट्स’ और ‘हिंदी में समाचार’ किताब प्रकाशित. एफटीआईआई से फिल्म एप्रिसिएशन का कोर्स. जेएनयू से पीएचडी और जर्मनी से पोस्ट-डॉक्टरल शोध.
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